भारत में फटने वाला लोन का बुलबुला! आने वाला है ‘महासंकट’, डराने वाली रि‍पोर्ट

Loan bubble about to burst in India! A 'great crisis' is coming, frightening reportLoan bubble about to burst in India! A 'great crisis' is coming, frightening report

नई दिल्‍ली: भारत में सबप्राइम कर्जों का बुलबुला बढ़ गया है। अब यह लाखों परिवारों को कर्ज के जाल में फंसा रहा है। दूसरे शब्‍दों में सबप्राइम लोन का संकट गहराता जा रहा है। न्‍यूज एजेंसी ब्‍लूमबर्ग ने कई सर्वे का हवाला देकर यह बात कही है। अपनी रिपोर्ट में उसने कहा है कि लगभग 68% लोगों को लोन चुकाने में दिक्कत हो रही है। इस वजह से इस क्षेत्र में पैसा लगाने वाले निवेशकों को नुकसान हो सकता है। यह उद्योग लगभग 45 अरब डॉलर का है। विशेषज्ञों का मानना है कि भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) को इस पर और कड़ी निगरानी रखनी चाहिए। उनका कहना है कि फाइनेंशियल इन्क्‍लूजन का मतलब सिर्फ लोन देना नहीं है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना है कि लोग उसे चुका सकें। सबप्राइम कर्ज वे लोन होते हैं जो उन बॉरोअर को दिए जाते हैं जिनकी क्रेडिट हिस्‍ट्री अच्छी नहीं होती है।

लोन चुकाने में देरी की समस्या बढ़ रही है। 91 से 180 दिनों के बीच लोन की किस्त जमा न होने का फीसदी बढ़कर 3.3% हो गया है। जबकि जून 2023 में यह आंकड़ा सिर्फ 0.8% था। इसका मतलब है कि स्थिति और खराब हो सकती है। बहुत से लोग पुराने लोन चुकाने के लिए नए लोन ले रहे हैं। कुछ लोग तो इतने परेशान हैं कि उन्हें अपने बच्चों को स्कूल से निकालना पड़ रहा है। इससे पता चलता है कि आने वाले दिनों में लोन डिफॉल्‍ट और बढ़ सकते हैं।

2007-2008 के वित्तीय संकट से यह कैसे अलग?
ब्‍लूमबर्ग की रिपोर्ट में कहा गया है कि यहां जिन सबप्राइम लोन की बात है, वे 2007-2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान अमेरिका में दिए गए लोन से अलग हैं। ये छोटे लोन हैं, जिन्हें माइक्रोफाइनेंस कहा जाता है। ये लोन उन लोगों को दिए जाते हैं जिनके पास नियमित नौकरी नहीं है या जो अपना छोटा-मोटा काम करते हैं। भारत में ऐसे लोन की बहुत मांग है। कारण है कि यहां 10 में से 9 लोगों के पास कोई औपचारिक नौकरी नहीं है। इन लोगों को बैंकों से लोन मिलना मुश्किल होता है।

पहले, माइक्रोफाइनेंस कंपनियां कुछ लोगों के समूह को लोन देती थीं। समूह के सभी सदस्यों की जिम्मेदारी होती थी कि वे समय पर लोन चुकाएं। इससे लोन की वसूली आसानी से हो जाती थी। लेकिन, कोरोना महामारी के दौरान सामाजिक दूरी के नियमों के कारण समूह में बैठकें बंद हो गईं।

चेन्नई स्थित एक पॉलिसी रिसर्च संस्था ‘द्वारा रिसर्च’ ने पिछले महीने एक रिपोर्ट में कहा, ‘उसके बाद माइक्रोफाइनेंस संस्थानों के लिए समूह एकजुटता के उसी स्तर को बनाए रखना मुश्किल हो गया है। ये खबर आप जस्ट अभी न्यूज़ में पढ़ रहे हैं। ’ रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ग्राहकों को अब पता है कि समूह में शामिल होने के सामाजिक दबाव से बचना संभव है, जो संयुक्त देयता का मुख्य आधार था।’।

क्‍यों बढ़ रही है समस्‍या?
द्वारा रिसर्च के द्विजराज भट्टाचार्य के अनुसार, सोशल कोलेट्रल का कमजोर होना विनियमन के लिए गंभीर समस्या है। जब समूह की जिम्मेदारी प्रभावी नहीं रहती तो लोन लेने का जोखिम व्यक्तिगत हो जाता है। इससे यह पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि कौन लोन चुका पाएगा और कौन नहीं। शहरों में गरीब लोग अपनी आय और खर्चों के बारे में ऑनलाइन जानकारी देते हैं। इससे लोन देने वालों को उनकी क्रेडिट योग्यता का आकलन करने में थोड़ी मदद मिलती है। लेकिन, गांवों में ज्यादातर लोग नकद में लेनदेन करते हैं। इसलिए, उनकी आय और खर्चों का पता लगाना लगभग असंभव है।

क्रेडिट ब्यूरो हैं, लेकिन उनके पास फिनटेक कंपनियों या सोने के बदले लिए गए लोन का डेटा नहीं होता है। हो सकता है कि बॉरोअर का पति जुआ खेलता हो। उसके पड़ोसी को यह बात पता होगी। लेकिन, जब समूह की जिम्मेदारी नहीं होती तो किसी के पास भी ज्यादा लोन लेने से रोकने का प्रोत्साहन नहीं होता है। हर बॉरोअर अकेला होता है। माइक्रोफाइनेंस का सावधानीपूर्वक बनाया गया अर्थशास्त्र अब अस्त-व्यस्त हो गया है। मुहम्मद यूनुस को 2006 में इसी के लिए नोबेल शांति पुरस्कार मिला था। इसलिए, लोन देने वालों को निगरानी के लिए एक नए नजरिये की जरूरत है।

क्‍या कहते हैं न‍ियम?
अभी के नियम भी ज्यादा पुराने नहीं हैं। 2022 में आरबीआई ने माइक्रोफाइनेंस बॉरोअर की परिभाषा को बदल दिया। अब 300,000 रुपये ($3,500) सालाना कमाने वाला परिवार भी माइक्रोफाइनेंस लोन ले सकता है। शहरों में यह सीमा 50% बढ़ गई। गांवों में यह वृद्धि और भी अधिक थी। RBI ने सभी लोन पर कुल मासिक पुनर्भुगतान को आय का 50% तक सीमित कर दिया। पहले, कर्ज की एक निश्चित सीमा होती थी। RBI ने ब्याज दरों पर एक दशक से चले आ रहे नियंत्रण को भी हटा दिया। अब माइक्रोफाइनेंस कंपनियां अपनी मर्जी से ब्याज दरें तय कर सकती हैं। इसके अलावा, एक परिवार को दो से अधिक लोन देने पर लगी रोक को भी हटा दिया गया।

एक उदार दृष्टिकोण शायद गलत नहीं था, लेकिन यह गलत समय पर लिया गया फैसला था। जब वेतन वृद्धि स्थिर थी, तब इसने निवेशकों को गलत संकेत दिया। यूरोपीय फंडों सहित कई निवेशकों ने भारतीय माइक्रोफाइनेंस में पैसा लगाया। उन्हें लगा कि उन्हें सुरक्षित और उच्च रिटर्न मिलेगा। बैंकों ने भी इस उद्योग को अधिक धन दिया।

लोन का सही इस्‍तेमाल नहीं हुआ
महामारी के बाद नियमों में बदलाव के कारण लोगों ने नए लोन लेना शुरू कर दिया। लेकिन, वे इन लोन का इस्तेमाल छोटे व्यवसाय शुरू करने या अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए नहीं कर रहे थे। वे दिखावटी शादियों का आयोजन कर रहे थे या उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुएं खरीद रहे थे।

द्वारा के कार्यकारी निदेशक इंद्रदीप घोष कहते हैं, ‘हर समाज में स्टेटस दिखाने की होड़ होती है।’ लेकिन जब माइक्रोफाइनेंस तक पहुंच बहुत आसान हो जाती है और लोन देने वाले पर्याप्त जांच नहीं करते हैं तो स्टेटस दिखाने की होड़ बहुत तेजी से बढ़ सकती है।’

अब जब ज्यादा कर्ज हो गया है तो कुछ संस्थानों को विफल होने दें। लोन देने पर सख्त नियंत्रण लगाने से मौजूदा संकट और बढ़ सकता है। सरकार को बॉरोअर्स को व्यवस्थित तरीके से कर्ज कम करने में मदद करनी चाहिए। भारत के दिवालियापन कानून में इसका प्रावधान है। लेकिन, यह अभी तक व्यक्तियों पर लागू नहीं हुआ है। आरबीआई को एक पर्याप्त बाजार निगरानी प्रणाली स्थापित करने की आवश्यकता है।

भारत जैसे बड़े देश में उत्पादन और आय में बहुत अंतर है। परिवारों की लोन चुकाने की क्षमता भी अलग-अलग होती है। वैश्विक निवेशकों को यह सब पता नहीं होता है। उन्हें डेटा दिखाया जाना चाहिए ताकि वे यह तय कर सकें कि उन्हें कहां सुरक्षित रिटर्न मिल सकता है।

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