
मेजर थापा की वीरता के किस्से आज भी सेना के जवानों को सुनाए जाते हैं.
किसी को मृत मान कर अंतिम संस्कार कर दिया जाए और फिर वह जिंदा निकले तो परिवार वालों की खुशी की इंतहा नहीं होगी. कुछ ऐसा ही हुआ था मेजर धन सिंह थापा के साथ. चीन के साथ साल 1962 के युद्ध में मेजर थापा को शहीद घोषित कर दिया गया पर वह बच कर निकल आए. अपने वीर सपूत को अपने बीच पाकर परिवार ही नहीं, पूरे देश की बांछें खिल गई थीं.
उनको परमवीर चक्र से नवाजा गया. पदोन्नति भी मिली और अंतत: लेफ्टिनेंट कर्नल के पद से रिटायर हुए. मेजर थापा की वीरता के किस्से आज भी सेना के जवानों को सुनाए जाते हैं. उनकी जन्म की तारीख को लेकर मतभेद हैं. दस्तावेजों में कहीं पर 10 अप्रैल तो कहीं पर 28 अप्रैल का जिक्र किया गया है. आइए इसी बहाने हम भी जान लेते हैं मेजर धन सिंह थापा की बहादुरी और चीन के चंगुल से निकलने का किस्सा.
शिमला में हुआ था जन्म
फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ ने कभी कहा था कि कोई अगर कहे कि उसे मौत से डर नहीं लगता तो या तो वह झूठा है या फिर गोरखा. ऐसे ही थे लेफ्टिनेंट कर्नल धन सिंह थापा. हिमाचल प्रदेश के शिमला में जन्मे मेजर थापा के पिता पीएस थापा और मां नेपाली मूल की थीं. लेफ्टिनेंट कर्नल थापा बचपन से ही सेना में जाना चाहते थे. आखिरकार 28 अगस्त 1949 को उनकी इच्छा पूरी हुई और भारतीय सेना की 1/8 गोरखा राइफल्स में उनको कमिशन मिल गया. वीरता की मिसाल लेफ्टिनेंट कर्नल थापा अपनी ड्यूपी पूरी सिद्दत से करते थे. वह एक अच्छे खिलाड़ी थे और फुटबॉल खेलने में महारत हासिल थी.
शुरू से प्रभावित किया
भारतीय सेना में कुछ साल की सेवा के बाद उनका विवाह शुक्ला थापा से हुआ. दोनों के तीन बच्चे हुए पूर्णिमा थापा, पूनम थापा और परम दीप थापा. सेना में अपनी नियुक्ति की शुरुआत से ही लेफ्टिनेंट कर्नल थापा ने सबको प्रभावित करना शुरू कर दिया था. उनकी शौर्य की कहानियां सेना के साथियों के बीच खूब प्रसिद्ध थे. वरिष्ठ अधिकारियों की ओर से दी गई हर जिम्मेदारी को वह बखूबी निभाते थे.

मेजर थापा की अगुवाई में गोरखा सैनिकों ने बड़ी संख्या में चीन के सैनिकों को मार गिराया.
मेजर थापा को मिला अहम जिम्मा
यह साल 1962 की बात है. भारत और चीन के बीच चल सीमा विवाद के दौरान ही हिमालय क्षेत्र में चीन ने अपनी सेना की घुसपैठ विवादित क्षेत्रों में बढ़ा दी. भारत ने अपनी सेना को इस घुसपैठ को रोकने का जिम्मा दिया. इसके लिए फॉरवर्ड पालिसी के तहत भारतीय सेना ने विवादित क्षेत्रों में कई छोटी-छोटी पोस्ट तैयार की थीं. उस वक्त लेफ्टिनेंट कर्नल थापा मेजर के पद पर थे और लद्दाख में तैनात थे. वहां फॉरवर्ड पॉलिसी के तहत श्रीजप-1 पोस्ट स्थापित की गई. इसका जिम्मा पैंगोंग झील के उत्तरी किनारे पर आठवीं गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन की डेल्टा कंपनी (डी कंपनी) को दिया गया था. इस कंपनी का नेतृत्व मेजर धन सिंह थापा कर रहे थे.
दुश्वारियों से जूझना पड़ा
द टेलीग्राफ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि तब प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से पोस्ट बनाने का आदेश तो दे दिया गया पर उसकी दुर्गम भौगोलिक स्थिति का ध्यान नहीं रखा गया. ऐसे में संसाधन और संचार स्थापित करने में तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ा. श्रीजप-1 तक तो संसाधन पहुंचा पाना दिवास्वप्न से कम नहीं था. वहां सड़क मार्ग से पहुंच ही नहीं थी. केवल झील के जरिए पोस्ट तक पहुंच थी. यही नहीं, इस पोस्ट की क्षमता को देखते हुए वहां डी कंपनी के केवल 28 जवान मेजर थापा के नेतृत्व में मौजूद थे, जबकि चुशुल एयरफील्ड को बचाए रखने के लिए यह सबसे अहम पोस्ट थी. इसके बावजूद इस पोस्ट से मुख्यालय का कोई संपर्क नहीं था.
चीन के 600 सैनिकों ने किया हमला
भारत सरकार को उम्मीद थी कि उसके इस कदम से चीन की सेना हमला करने की हिमाकत नहीं करेगी पर हुआ इसके विपरीत. चीन की सेना ने अपनी भौगोलिक स्थिति का फायदा उठाते हुए युद्ध शुरू कर दिया. श्रीजप पोस्ट पर अपने साथियों के साथ तैनात मेजर थापा के कंधों पर कुल 48 वर्ग किमी क्षेत्र को चीन से बचाकर रखने का जिम्मा था. वे अपनी पोस्ट पर सजगता से मुस्तैद थे. इसी बीच, 20 अक्तूबर 1962 को वह घड़ी आ गई, जब चीन की सेना ने 600 सैनिकों के साथ श्रीजप-1 पोस्ट पर हमला कर दिया.
तोपों और मोर्टारों से लैस चीनी सैनिकों को उम्मीद भी नहीं थी कि 28 सैनिकों की पोस्ट पर उनको इस कदर मुकबला करना होगा. मेजर थापा की अगुवाई में गोरखा सैनिक अपनी पूरी ताकत से दुश्मनों से लड़े और बड़ी संख्या में चीन के सैनिकों को मार गिराया.
वीरता ऐसी कि दंग रह गया दुश्मन
गोरखा सैनिकों की वीरता के आगे पोस्ट पर कब्जे की चीन के सैनिकों का पहला प्रयास नाकाम रहा. इस तरह का जवाब देखकर दुश्मन चीनी हैरान थे. उनके समझ में ही नहीं आ रहा था कि आखिरकार क्या करें. एक-एक कर पोस्ट पर कब्जा करने के चीनी सैनिकों के तीन प्रयासों को गोरखा सैनिकों ने नाकाम कर दिया. इसलिए चीनी सैनिक गुस्से में तेजी से मेजर थापा की पोस्ट की ओर बढ़े और उसे जला दिया. तब तक मेजर थापा और उनके साथ के केवल दो जवान बचे थे. उनका गोला-बारूद भी खत्म हो चुका था. ऐसे में उन्होंने अपनी खुखरी निकाली और कई दुश्मनों को मार गिराया. हालांकि मेजर थापा और उनके साथी पोस्ट को नहीं बचा पाए और बंदी बना लिए गए.
बंदी बनाए गए पर सबको लगा नहीं रहे
मेजर थापा बंदी बना लिए गए पर सेना को इसकी खबर नहीं मिल पाई. इसलिए मान लिया गया कि वह अपने साथी सैनिकों के साथ शहीद हो गए होंगे. चीन की ओर से शहीद भारतीय सैनिकों की एक सूची भारत को सौंपी गई, जिसमें मेजर थापा का भी नाम था. इसके बाद मेजर धन सिंह थापा के परिवार वालों ने उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया. दूसरी ओर, चीन के सैनिकों ने मेजर थापा के साथ काफी क्रूरता की.
अपनी सेना और सरकार के खिलाफ बयान देने से मना करने पर उनको भयानक शारीरिक यातनाएं दी गईं पर वह टस से मस नहीं हुए. इसी बीच, मेजर थापा के साथ बंदी बनाए गए राइफल मैन तुलसी राम थापा चीनी सेना के कब्जे से भाग निकले और अपने लोगों को मेजर थापा के जिंदा होने की बात बताई. युद्ध खत्म होने के बाद चीनी सेना ने उनको रिहा कर दिया.
भारत सरकार ने परमवीर चक्र से नवाजा
मेजर थापा को भारत सरकार ने सर्वोच्च सैन्य सम्मान परमवीर चक्र से नवाजा. साल 1980 में वह लेफ्टिनेंट कर्नल के रूप में रिटायर हुए. पैंगोंग के पास एक पोस्ट का नाम धन सिंह थापा के सम्मान में उनके नाम पर रखा गया. साल 2005 में इस बहादुर सपूत ने दुनिया को अलविदा कह दिया.
यह भी पढ़ें:आपके शहर में हीटवेव चल रही या नहीं, कैसे पता करें? IMD ने 6 राज्यों के लिए जारी किया अलर्ट